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पेन्सिल

पेन्सिल

अक्सर , मेरी हर बात पर ,
तुम मुझे छीलते रहते हो ,
कभी आलोचक बनकर ,
कभी उलाहना देकर ,
पेन्सिल की तरह,
मुझे पैना करते रहते हो !
तुम्हारी इन्ही बातो से ,
मैं रूठ जाया करती थी ,
सच !कितनी बड़ी मूर्ख थी ,
पर ,आज मैं ,
तुम्हारी फितरत जान चुकी हूँ ,
तुम क्यों मुझे छीलते रहते हो ,
क्यों मेरी धार तेज करते रहते हो ,
ताकि मेरा हर हर्फ़ ,
एक तीर बन जाये ,
चीर दे दिल का हर कोना ,
और बन जाये ....एक नासूर ,
सच ! तुम्हारे प्यार का यह अंदाज़ ,
सबसे जुदा है !

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