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इक्कीसवीं सदी और स्वच्छता

इक्कीसवीं सदी और स्वच्छता

अभी हमे हैदराबाद आये हुए जमा जमा दो महीने ही हुए थे। एक शाम हमारी एक तेलगु पड़ोसन हाथ मे कुमकुम की डिबिया लिए हमे अपनी बिटिया के साड़ी फंक्शन के लिए न्योतने आयी थी। साड़ी फंक्शन- हां यदा कदा कन्वेंशन हॉल के सामने से गुजरते इस नाम से दो चार तो जरूर हुई थी, पर वाकई मुझे इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। बात पड़ोस की थी तो जाना भी जरूरी था, सोचा पहले इस प्रथा को भी विस्तृत रूप से जान लिया जाये।

साड़ी समारोह दक्षिण भारत का वो समारोह है जिसे तब मनाया जाता है, जब बिटिया यौवन की ओर पहला कदम रखती है। जब उसकी पहली माहवारी आती है। देखने और सुनने में कितना अच्छा लगता है न कि जहां पूरी दुनिया मे माहवारी एक खुसफुसाहट का विषय है वही भारत के एक कोने में लोग इसपर खुल कर बातें करते हैं, जश्न मनाते हैं। पर इन खाते-पीते, नाचते -गाते समाज के पीछे का काला स्याह भी कुछ वैसा ही अंधकारमय है। जिस बच्ची की माहवारी के ये जश्न होता है, उसे ही उसके उन दिनों में घर के किसी एक कोने में एकाकी वक्त गुजारने को मजबूर किया जाता है जो कि लगभग 7-16 दिनों तक का होता है। इस दौरान न तो वो स्नान ही कर सकती है, न ही घर मे किसी के सामने आ सकती है। इन दिनों सिर्फ उसकी माँ उससे मिल सकती है, वह भी तब जब वह उसका खाना लेकर जाती है यानी दिन में मात्र एक से दो बार। ये सब तब होता है जब लड़की बॉडी शेमिंग से गुजर रही होती है और भावनात्मक तथा शारीरिक रूप से कमजोर होती है। स्वच्छता और हाइजीन का स्तर तो अब आप समझ ही सकते हैं।

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स्वच्छता एवम हाइजीन एक ऐसा टॉपिक है जो हमेशा से ही पुरी दुनिया में गोलमगोल रहा है। वो भी तब जब संसार भर में बहुत सारी सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाएं इसके पीछे कार्य करती हैं। आपको जानकर और भी आश्चर्य होगा की विश्व मे लगभग 2.4 मिलियन लोग अब भी इससे अछूते हैं।

हमारे भारत मे भी जहां “स्वच्छ भारत अभियान” अपने दौर के पांचवे साल में है वहां भी इसका आंकड़ा संतोषप्रद नही है। यद्यपि 2019 में पिछले वर्षों के अपेक्षा हर परिवार में शौचालय की संख्या बढ़ी है। किंतु अगर आज भी आप अहले सुबह या शाम किसी हाइवे, खेत खलिहान से जुड़े रास्ते या रेलमार्ग से गुजरते हैं तो शायद पूरे प्रान्त में लगभग एक सा नजारा देखने को मिलेगा। झाड़ियों की ओट या खुले में फारिग होते ये स्त्री पुरुष या बच्चे कई बार तो गाड़ियों की आवाज या प्रकाश से शर्मसार खड़े हो जाते हैं। पर इस शर्म को भी वो अपने आत्मसम्मान से नही जोड़ पाते।

बात तो हो रही है, स्वच्छता और हाइजीन की। फिर उसमें लिंगभेद कैसा? यह तो सबके लिए समान है। जी नही! ये समान नही है। पुरूष और स्त्री दोनो की बनावट शारीरिक रूप से अलग होती है, तो वाजिबन उनकी आवश्यकता भी भिन्न होती है। एक स्त्री को प्राकृतिक निपटारे के लिए एक पुरुष से ज्यादा समय, पानी और जगह की जरूरत होती है ताकि वो अपनी बुनियादी हाइजीन मेन्टेन कर सके।

स्वास्थ्य विज्ञान का सबसे ज्यादा भार हम स्त्रियों पर पड़ता है और यह तब और बढ़ जाता है जब उन्हें खुले में शौच में जाना पड़ता है। खुले में शौच जाने से न सिर्फ शारीरिक वरन कई बार मानसिक परेशानियों से भी गुजरना पड़ता है जैसे कि स्वरक्षा, सेक्सुअल हरर्समेंट इत्यादि। ये समस्याएं तो लगभग हर दिन की है पर ये हर महीने होने वाली माहवारी के साथ और बढ़ जाती है क्योंकि उस दौरान अच्छी स्वच्छता के लिए न तो उचित संसाधन मिलता है न ही अपना प्राइवेट स्पेस जहाँ वो इत्मिनान से इसे मेन्टेन कर सकें।

भारत में तो माहवारी अपने आप मे एक समस्या है जिसके बारे में न तो कोई खुले में बात करना चाहता है, न ही कोई जानकारी लेना या देना। ये एक ऐसा टैबू है, जिससे सब पल्ला झाड़ते हैं। यहाँ स्वच्छता तब और विकट बन जाती है जब वो बच्चियां जो इसे पहली बार झेलती हैं, उन्हें इसकी कोई जानकारी ही नही होती। इसे इतना जटिल बना दिया जाता है कि वो बच्चियां अपनी समस्याएं अपनी माँ तक से साझा नही कर पाती। एक रिपोर्ट के अनुसार 5 में से मात्र 1 लड़की माहवारी को मातृत्व से जोड़ पाती हैं। इन आधे अधूरे ज्ञान से उन्हें कई रोगों का शिकार होना पड़ता है जिसमे से एक ओवेरियन कैंसर भी है।

बात तब की है जब मैं दिल्ली से ग्रेजुएशन कर रही थी। एक अहले सुबह मेरी एक मित्र का कॉल आया कि जल्दी घर आओ। वहां जाकर पता चला कि दोनों माँ बेटी माहवारी से हैं एवम घर मे उनके अलावा कोई न था तो ऐसे में उनकी पारिवारिक प्रथा के अनुसार न तो वो रसोईघर में ही जा सकती थी न ही अपने कमरों में। वर्षों से इन दिनों के लिए उनके घर में एक अलग कमरा, बिस्तर और बर्तन है। अब वर्षों से सिर्फ इन्ही दिनों उपयोग होने वाली चीजों की स्वच्छता का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि ये समस्याएं सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है। ये समस्याएं शहरों के तथाकथित पढे-लिखे और मॉडर्न परिवारों में भी है जो आज भी रूढ़िवादी एवम दकियानूसी प्रथायों को अपनाये हुए हैं।

आज भी बहुत सारे घरो में गंदे शौचालय को साफ करना अपने आप मे एक गंदा काम है जो अमूमन स्रियों के जिम्मे ही आता है। शौचालय साफ करने के बाद खुद को अपवित्र मानती वे स्त्रियां अपना सिर धो, चूड़ियाँ बदल, नख-शिख कर अपने आप को पवित्र करती हैं जो शौचालय साफ करने की प्रकिया को और भी जटिल बना देता है। इसकी वजह से रोज साफ होने वाले शौचालय महीनों तक साफ नही होते। परिणाम अस्वच्छता के रूप में ही सामने आता है।

हम सब जब अपने सपनो का घर बनाते हैं, हर चीज का ही ख्याल रखा जाता है, यहां तक कि वास्तु और दिशा शूल का भी। पर हम ऐसे शौचालयों का निर्माण भूल जाते हैं जो सबके लिए उपयोगी हो, चाहे वो स्त्री पुरूष हो या बाल-वृद्ध। परिणामतः हमारा घर भी हमारे हाइजीनिक रहने में हमारी मदद नही करता।

तो आइए एक कदम हम भी बढ़ाये, इन बातों पर खुलकर बात करे। इस से जुड़ी बातों को कतई गंदा न समझे बल्कि गंदगी को खत्म कर एक ऐसे भारत का निर्माण करें जो न सिर्फ लिंगभेद से परे हो, वरन ऐसा हो जहाँ लिंगभेदी अस्वच्छता भी अपना पैर न पसार सके।

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