“जहाँ मन भय से मुक्त हो और मस्तक सम्मान से उठा हो...”
(Where the mind is without fear and the head is held high…)
इसे प्रसन्नता की बात मानी जाए या फिर विडंबना कही जाए कि करीब एक शताब्दी पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई ये कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी.
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित “गीतांजलि” की यह कविता जब लिखी गई थी, तब हमारा देश भारत असंतुलित हालातों से गुज़र रहा था. तब गुरुदेव ने प्रार्थना के रूप में इस कविता की रचना की थी. इसमें उन्होंने एक भय-मुक्त मन के लिए बंधन मुक्त आकाश की कल्पना की थी. गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हमारे देश को यकीनन एक बंधन मुक्त आकाश की ही ज़रूरत थी.
लेकिन आज, करीब 110 सालों के बाद भी क्या हम आजाद हो पाए है? क्या हमारा मन नफरत की दीवारों को गिराकर, संकुचित विचारों को त्यागकर एक चंचल निश्छल झरने की तरह उस बंधन मुक्त आकाश के लिए भय-मुक्त हो पाया है? क्या हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, दिखावे और छद्म अहंकार की बेड़ियों को तोड़ पाए हैं? एक ज़िम्मेदार समाज की अपेक्षा तो हमने कर ली, लेकिन क्या हम एक ज़िम्मेदार समाज के लायक एक ज़िम्मेदार नागरिक बन पाए है?
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दुःख की बात है कि इन सभी सवालों का जवाब “ना” में है. समाज हमेशा व्यक्ति से बनता है. और कड़वी सच्चाई यही है व्यक्तिगत स्तर पर हम सभी पतन की ओर अग्रसर हैं. गुरुदेव ने जब यह कविता लिखी थी, तब हमारा देश बाहरी शक्तियों का गुलाम था, लेकिन व्यक्ति और जनसमुदाय सकारात्मक ऊर्जा और आशा से ओतप्रोत थे. आज हम सब अपने मन की बुरी प्रवृत्तियों के गुलाम है जिसका एक तरफ़ा असर समाज के साथ साथ व्यापक स्तर पर देश पर भी पड़ रहा है.
आज गुरुदेव की जयंती पर हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके आदर्श भारत की कल्पना को साकार करें. और स्वच्छता एवं भय-मुक्ति की शुरुआत अपने मन से ही करें.
बस, एक बात रह जाती है मन में... जब 110 साल पहले गुरुदेव ने यह रचना की थी तब क्या उन्हें पता था कि यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक होगी? अगर हाँ... तो यह क्या था... दूरदर्शिता या पूर्वानुमान?