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14 मार्च 1990 की वो सुबह भी आम दिनों की तरह ही थी, मौसम ख़ुशगवार था और कभी न सोने वाली मुम्बई हमेशा की तरह आज भी बिना दाएँ बाएँ देखे बिना रुके बस दौड़े जा रही थी। ..............फ़्लैट नम्बर 108 और 109 में आज कुछ गहमागहमी है। मुंबई के अत्यंत पॉश इलाक़े में स्थित इस मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट के सभी फ़्लैट और उनमें रहने वाले लोग भी कमोबेश एक जैसे ही हैं, मतलब जैसे फ़्लैट्स का निर्माण एक जैसा है लोगों का भी हो गया लगता है यानि दाएँ हाथ को बाएँ हाथ की ख़बर ही नहीं ।वैसे तो दूसरे के घरों में झाँकना अच्छा नहीं माना जाता लेकिन आज तो बग़ल वाले घर की छोड़िए एक परिवार में ही लोगों को एक दूसरे के बारे में पता नहीं रहता।
करोड़ों की क़ीमत वाले ये दोनो ही फ़्लैट्स बिल्डिंग की दसवीं फ़्लोर पर है, एक मि.सुयश भगनानी और दूसरा उनकी माताजी प्रमिला भगनानी के नाम पर है। बिल्डिंग के हर फ़्लोर पर दो ही फ़्लैट हैं।सुयश भगनानी जी अमेरिका में करोड़ों के पैकेज पर काम करने वाले इंजीनियर हैं और पिताजी की मृत्यु से पहले से ही वहीं सेटेल हैं।प्रमिला जी यहाँ अपने फ़्लैट में अकेले ही रहती हैं , हाँ पैसों और तमाम सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं है।एक समय रिश्तेदारों में भी इनके पैसे और रुतबे के बड़े चर्चे थे लेकिन जल्दी ही वो दौर गुज़र गया इतनी बड़ी हैसियत वाले लोगों के पास सामान्य हैसियत वाले लोगों और रिश्तेदारों के लिए न तो समय होता है न ही परवाह ।
ख़ैर आज जब अचानक सुयश भगनानी लगभग पाँच साल बाद अपने परिवार के साथ इंडिया आए और घर पहुँचे तो दोनो ही फ़्लैट बंद थे । दोनो ही इंटरलॉक की चाबियाँ न होने की सूरत में बड़े परेशान हुए । उधर माताजी को भी कई दिनो से फ़ोन मिला रहे थे तो फ़ोन कोई और ही उठा रहा था कि अब ये नम्बर उसके पास है,ग़ुस्सा भी आया कि माँ ने नम्बर बदल लिया और बताया भी नहीं। नीचे गार्ड से पूछा तो वो प्रमिला जी के बारे में कुछ जानता ही नहीं था। उसने कहा ,”साहब मैं यहाँ नया हूँ फ़्लैट्स तो बहुत समय से बंद हैं उस फ़्लोर पे तो कोई आता जाता भी नहीं।”
आख़िरकार फ़्लैट्स के ताले तुड़वाने पड़े तो प्रमिला जी के फ़्लैट नम्बर 108 में हॉल के सोफ़े पर लटकते कपड़ों में एक कंकाल पड़ा देखकर सबकी चीख़ निकल गई।यह ६७ वर्षीय प्रमिला जी का कंकाल था। सुयश जी ने पुलिस को ऐसे बताया जैसे अभी कल ही की बात हो और आज वो पहुँच गए कि प्रमिला जी एकदम स्वस्थ थीं लगभग साल सवा साल पहले उनकी माँ से बात हुई थी तब उन्होंने इंडिया वापस आने या उन्हें वहाँ ले जाने को कहा था क्योंकि अकेलापन और अशक्त होने के कारण अब वो अकेले रहने में असमर्थ थीं, लेकिन फिर अति व्यस्तता के कारण न वो आ पाये न प्रमिला जी ही जा पायीं । मुंबई में और कोई रिश्तेदार भी नही जिससे कोई सम्पर्क हो सकता वैसे भी इतने लम्बे समय से बाहर रहने के कारण इंडिया में मॉम डैड के अलावा उनका किसी से कभी कोई सम्पर्क रहा नही ।
प्रमिला जी की मृत्यु का कारण उनका कई दिनो तक भूखा प्यासा रहना बताया गया , सुयश जी को बहुत आश्चर्य था कि पैसे की कोई कमी न होने के बाद भी उन्होंने अपने कामों के लिए कोई नौकर या नौकरानी क्यूँ नहीं रखा लेकिन वो एक अकेली अशक्त बुज़ुर्ग महिला के भय दुःख और पीड़ा को नही समझ पाये या समझना ही नहीं चाहते थे।
प्रमिला जी ने तो पता नही कब दम तोड़ा लेकिन एक बेटे की माँ के प्रति संवेदनायें शायद बहुत पहले ही दम तोड़ चुकी थीं।
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2. चुप ना रहो... "छोटीछोटी बातों पर भड़कने लगी है जाने पिछले कुछ दिनो से इसे क्या हो गया है ...वैसे तो अपने को सामान्य दिखाती है लेकिन कुछ पूछो तो उलटे सीधे जवाब देती है।आजकल तो १२-१३ वर्ष के बच्चे , बच्चे कहाँ रहते हैं।” यही सब सोचते सोचते मैं जल्दी जल्दी श्रुति के बेड पर पड़े कपड़े समेटने लगी, आधे घंटे में श्रुति स्कूल से आ जाएगी।
एक ही बेटी है, चार साल हुए पति के निधन के बाद उनकी जगह आफिस में नौकरी करते हुए.. आज माह के दूसरे शनिवार की छुट्टी थी इसलिए घर के कुछ काम भी थे जो रोज़ नहीं हो पाते।
इतने में डोरबेल की आवाज़ ने चौंका दिया।
देखा तो श्रुति थी,"अरे बेटा आज तो जल्दी आ गयी ..?"
."हाँ माँ ! आज तो पक्का लेट हो जाता ऑटो ख़राब हो गयी थी भैया ऑटो ठीक कराने लगे तो मैं राहुल की स्कूटी से आ गयी।"
"क्या....ऐसे कैसे किसीके भी साथ आ गयीं..स्कूल की ऑटो छोड़कर... किसकी ज़िम्मेदारी है..इतनी लापरवाह कब से हो गयी तुम..?" मैने थोड़े ग़ुस्से और झुँझलाहट से बोला।”रोज़ तो मैं घर पे होती नही क्या यही सब करती हो तुम.?”
"क्या माँ... आपको तो हर वक़्त हर काम में मेरी ग़लती ही दिखती है हर जगह हर बात में ,इतनी गरमी थी और आज आप घर में थीं ...उसने कहा चलो छोड़ देता हूँ तो मैंने कहा ठीक है वो मेरे ही क्लास में है इसमें मैंने क्या ग़लत कर दिया” और वो पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गयी।
मैं चुप खड़ी रह गयी अब क्या कहूँ कैसे समझाऊँ इस लड़की को हर बात पे बस ग़ुस्सा।
थोड़ी देर बाद उसके कमरे में जाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरती रही चुपचाप..... शायद आज ग़ुस्से में कुछ ज़्यादा ही कह गई मैं ...है तो अभी बच्ची ही फिर भी पिछले तीन चार सालों में बहुत ज़िम्मेदार हो गई है वरना शहर में परिवार से दूर रहकर एक बच्चे के साथ अकेले मेरा नौकरी करना इतना भी आसान नही था ..!
अचानक वो उठी और मुझसे लिपटकर रोने लगी फफक फफक कर ....!!
"क्या हुआ श्रुति चुप हो जाओ बेटा ऐसे रोते नहीं ...क्यों रो रही हो इतना , ऐसा तो मैंने कुछ नहीं कहा...अच्छा बाबा सॉरी..बस अब चुप हो जाओ।”
"आप कुछ कहती ही कहाँ हो....याद है पिछली बार जब मोहन चाचा आए थे तो उस दिन आप जब आफिस से आयीं तो मैं आपको पकड़कर कितना रोयी थी....और आपने कहा क्यों रो रही हो अब बड़ी हो गयी हो आज थोड़ी देर हो गयी आने में तो क्या हुआ मोहन चाचा तो थे...चलो अब मुँह धो और मेरी मदद करो किचेन में...चाचा को जाना भी है रात की बस से...एक बार भी आपने जानने की कोशिश नहीं की कि मैं क्यों रो रही थी।"
मैं सन्न रह गयी...दिल किसी अनजानी आशंका से धड़कने लगा...."क्या....क्या हुआ था उस दिन तुमने मुझे अभी तक बताया क्यों नहीं..?
"जानती हो उस दिन मोहन चाचा ने मेरे साथ....... मेरे कपड़ों में हाथ ....मैं कस के चिल्लायी तो मुझे बहलाने लगे ....मै ज़ोर ज़ोर से रोने लगी तो डर गए और कमरे से बाहर निकल गए फिर मैंने कमरा बंद कर लिया और जब आप आयीं तभी खोला।"
मैं अवाक् ...मुझे लगा किसी ने गरम पिघला हुआ शीशा मेरे कानों में डाल दिया ....पूरा शरीर ग़ुस्से से जलने लगा.... सगा चाचा ऐसी हरकत और एक शिकन नहीं...पिछले चार महीनों से...! क्या करूँ मैं ...? आँसू भरी आँखों से श्रुति को देखा।
नही,मैं कमज़ोर नही पड़ूँगी,मैं चुप नहीं रहूँगी।
3. दाग़...
आसमान की छाती चीरकर बेतहाशा शहर की ओर उड़ते गिद्धों के झुंड को देखकर क्षितिज पार से झूमते आते मेघों के झुंड ने धड़कते हुए दिल से पूछा ,
“ क्या आज फिर दंगा हुआ है शहरों में...?”
“अभी हुआ तो नही पर शुरू होने ही वाला है ,
शीघ्र चलो तुम सब भी और आज टूटकर बरसना ...
दाग़ जो धोने हैं तुम्हें, ख़ून और आँसू दोनो को ही आज तुम्हारी बहुत ज़रूरत होगी...!”