सन 1981 में मैं फ़ैज़ाबाद के सिविल कोर्ट में लिपिक के पद पर नौकरी कर रहा था. (सिविल कोर्ट कहने में थोड़ा रोब पड़ता है, दरअसल आम ज़बान में उसे कचहरी ही कहते हैं). वहां के बहुत संस्मरण हैं मेरे पास लेकिन आज सिर्फ़ नामों से संबंधित बात ही करूंगा.
वहां एक वकील के मुंशी का नाम परमात्मा प्रसाद था लेकिन मेरे सेक्शन के बड़े बाबू, न जाने क्यों, उसे हमेशा मुख्यमंत्री कह कर बुलाते थे. परमात्मा उन्हें हमेशा मना करता था और नाराज़ होता था लेकिन वे उसे मुख्यमंत्री कह कर छेड़ते रहते थे. एक दिन परमात्मा ख़राब मूड में रहा होगा सो उनकी शिकायत करने सीधे डिस्ट्रिक्ट जज साहब के चैम्बर में चला गया. जज साहब उसकी शिकायत सुन कर हंसने लगे और बोले कि वो तुम्हारा सम्मान ही बढ़ा रहे हैं कोई बुरी बात तो कह नहीं रहे. परमात्मा प्रसाद भी एक ही शातिर किस्म का मुंशी था. तुरन्त बोला कि जज साहब कल से मैं आपके अर्दली को जज साहब कह कर सलाम करूंगा, आप मेहरबानी से नाराज़ मत होइएगा. यह सुन कर जज साहब का तेज जाग उठा और मेरे बड़े बाबू को बुला कर उन्होंने बहुत डांटा. उस दिन से बड़े बाबू ने उसे मुख्यमंत्री कहना छोड़ दिया.
मैं क्योंकि कॉलेज से निकल कर सीधा वहां नियुक्त हो गया था इसलिये अदालती दुनिया देखने का मेरा पहला ही अवसर था यह. सच कहता हूं कि मुकदमों में ऐसे अजीब अजीब नाम पढ़ने में आते थे कि पता ही नहीं चलता था कि यह व्यक्ति का नाम है या वस्तु का. कभी कभी लोगों से पता चलता था कि उनके नाम भी अजीबोग़रीब परिस्थितियों में रख दिये जाते थे. जैसे किसी के बच्चे मर जाते थे, इस बार बच्चा होने पर बुरी नजर से बचाने के लिये घूरे (कूड़े) पर रख दिया गया थोड़ी देर के लिये तो जनाब का नाम घूरेलाल या घुरहू हो गया. किसी को इसी वजह से नौकरों के हाथ बेच दिया गया और फिर खरीद लिया गया तो श्रीमन का नाम बेचालाल या बेचन हो गया. बच्चे के पैदा होते ही पड़ोसी से झगड़ा हो गया तो बच्चे का नाम झगड़ू तो रखना तय हो ही गया. काला रंग तो कालू नाम रखने के लिये उचित है ही (अच्छा है मेरा नाम नहीं रखा मेरे माता पिता ने, वर्ना काला तो मैं भी हूं) बनारस में पैदा हुए तो बनारसी हो गये, रमज़ान के महीने में हुए तो रमज़ानी और ईद पर हुए तो ईदू. लड़्कियों के नाम तो नदियों के नाम पर ही रख देना सबसे आसान था. गंगा, जमुना, गोमती, सरयू, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि. फिर देवी देवताओं के नाम पर नाम रखना लड़्कों और लड़्कियों के और भी आसान और बढ़िया. जितनी बार पुकारो, पुण्य मिला मुफ़्त में. शहरों के नाम, देवी देवताओं के नाम, नदियों पहाड़ों के नाम कितना आसान था नाम रखना उन दिनों. आज जब देखता हूं कि माता पिता बच्चे के आने की दस्तक सुनते ही तमाम मित्रों की सलाह में , तमाम पुस्तकों में, तमाम साइट्स पर बच्चे के लिये नाम खोजते रहते हैं तो याद आती है मेरे घर की एक नौकरानी जिसका नाम "पनबरसी" थी. पनबरसी मौसी बताती थीं कि उनके पैदा होने के दिन बहुत बारिश हुई थी इसलिये उनका नाम इसी यादगार में रख दिया गया. जब मेरी बड़ी बेटी पैदा हुई तो मेरे कमरे को फूलों से सजाया गया. मेरा नाम तो आप जानते ही हैं और मेरी पत्नी का नाम कुसुम है. मेरे घर में मेरी एक दोस्त आयी हुई थी जो फूल देख कर बोली, " यह उत्तम कुसुम बहुत शोभित हो रहे हैं". बस मेरी मां ने कहा कि अपनी पोती का नाम 'शोभिता' रखेंगी.
नाम का बड़ा महत्व है, हम सभी जानते हैं और हां अपने नाम के साथ पिता का नाम भी महत्वपूर्ण है. हर जगह पिता का नाम भी पूछा जाता है. मैं अक्सर चमत्कृत होता हूं कि चलो बच्चों के नाम तो हमने रख लिये पर वस्तुओं के नाम किसने रखे होंगे ? मेज़ को मेज़ और घर को घर कहना किसने आरम्भ किया होगा. उफ़, सर में दर्द हो जाता है मेरे ये सोच सोच कर. बाईबिल में लिखा है कि आदम ने जिन जिन पशुओं के जो नाम रखे, वे ही नाम उनके हो गये. अन्य धर्मग्र्न्थों में भी ऐसा ही ज़िक्र होगा मगर वस्तुयें. ओह, फिर वही यक्षप्रश्न. आपके पास हो कोई उत्तर तो बताइये ना प्लीज़.
अब चर्चा एक क्रांतिकारी विचारधारा वाले मित्र की. उसी कचहरी में मेरे एक मित्र थे सईद अहमद जिनका शौक था लोगों के नामों का अन्य भाषा में अनुवाद कर देना. उदाहरणस्वरूप अपने सहयोगियों के नाम सईद ने इस प्रकार से अनुवाद कर दिये थे.
सईद (नेक) अहमद = नेकी राम, उत्तम सिंह = शेर ए अफ़ज़ल, भवन नारायण = इमारत अली छेदीलाल = सुराख़े सुर्ख़, किशनलाल = सुर्ख़ुल्लाह, कैसर हुसैन = सूरजराम
बड़ा सर्वधर्म भाव था सईद में. कहता था जिसकी दावत में जाओ, वैसा नाम रख लो. मस्जिद के मेहमानख़ाने में रुको तो सईद अहमद, मंदिर की धर्मशाला में रुके तो नेकी राम तो हो ही. लिस्ट लम्बी है विस्तार भय से सबके नाम नहीं लिख रहा हूं. कुछ भूल भी गया हूं. पुरानी बात है लेकिन सईद लगभग ११ साल के बाद पिछले साल मिले तो शेर ए अफ़ज़ल कह कर ही मिले मुझसे.
अक्सर अख़्बारों में वर्गीकृत विज्ञापन देखता हूं जैसे, " मैं कतवारू पुत्र माताबदल अपना नाम बदल कर कतवारू प्रसाद रख रहा हूं." क्या यार, बदलना ही था तो कोई ढ़ंग का नाम रखते. बेकार ही विज्ञापन का खर्च क्यों उठाया, रहे तो वही कतवारू के कतवारू.
तो किस्सा कोताह ये कि जैसे आराम बड़ी चीज़ है, मुंह ढंक कर सोइये, उसी प्रकार नाम बड़ी चीज़ है, ध्यान से रखिये. शेक्सपियर कह तो गये कि नाम में क्या रखा है, एक बार रख कर तो देखते अपना नाम 'बुड़बक परसाद', पता चल जाता कि क्या रखा है नाम में. घास न डालता जनाब को कोई. वैसे भी उसे अपना नाम इसलिये बुरा लगता था क्योंकि उसे लगता था कि किसी ने हिलती हुई नाशपाती (shakes a pear) को देख कर उसके पुरखों का नाम Shakespear रख दिया था.
अब इस से पूर्व कि मैं अपने फेसबुक के सम्मानित सदस्यों के नामों पर टिप्पणी करना शुरु करूं, मेरा पिछवाड़े की गली से निकल जाना ही बेहतर है क्योंकि चचा शेक्सपीयर का भूत सामने के दरवाज़े पर डंडा लेकर खड़ा है.