"बाबू उत्तम फिंग, अरे ओ बाबू उत्तम फिंग" ज़ोरों से कोई पुकार रहा था.
बड़ा क्रोध आया कि यह कौन बदतमीज़ है जो मेरे नाम के साथ मज़ाक कर रहा है. सवेरे नौ बजे का समय, मेरे नहाने का वक्त. कन्धों पर तौलिया डाले अपने कमरे से निकल, सीढ़ियां उतर कर नीचे आया तो देखा कि दरमियाने कद का एक व्यक्ति खड़ा हुआ है गेट के सामने और ज़ोर ज़ोर से आवाज लगा रहा है, "उत्तम फिंग, अरे ओ बाबू उत्तम फिंग". मैं वैसे ही क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति, इस मूर्खता पर मेरा पारा चढ़ गया. ध्यान से देखा तो वह व्यक्ति ठीक ठाक दिख रहा था. कुछ लोग शकल से ही बदतमीज़ लगते हैं और कुछ मुंह खोलते ही लग जाते हैं लेकिन इस आदमी में कोई बात थी कि चाह कर भी मैं इस पर चिल्ला नहीं पाया.
"कहिये, क्या बात है ?" मैंने थोड़ा शुष्क लहजे में पूछा.
"उत्तम फिंग आप ही हैं क्या ? लगते तो नहीं हैं." अविश्वास के से भाव में प्रश्न उछला.
"देखिये, मेरा नाम उत्तम सिंह है, उत्तम फिंग नहीं और आप मुझसे पहले तो कभी मिले नहीं तो मेरे लगने न लगने का प्रश्न कहां से आ गया ?"
"अरे, यही नाम तो मैं भी ले रहा हूं, आप नाराज होने लगे. भई लगते आप इफलिये नहीं हैं क्योंकि आपकी फोटो देखी फमाचारपत्र में, फिर फेफबुक पर भी देखी. बड़े जन्टलमैन लगते हैं और यहां तो आप के दर्फन किफी और ही रूप में हो रहे हैं."
फमाचारपत्र तो मैं समझ गया तुरन्त लेकिन फेफबुक समझने में ज़रा सा वक्त लगा.
मैंने कहा, " देखिये श्रीमन, अव्वल तो मैं आपको जानता नहीं, दूसरे आप गलत समय पर आये हैं क्योंकि मैं बैंक जाने के लिये तैयार होने जा रहा हूं और तीसरे अगर मैं कहीं और जन्टलमैन लग रहा था तो क्या यहां अपने घर पर कोई उठाईगीरा लग रहा हूं ?"
"हा हा हा हा, आप बड़े परिहाफपफन्द हैं फिंग फाहेब. मेरा आफय यह था कि कैमरा भी क्या चीज है. कैफी कैफी फूरत को फुन्दर दिखा देता है. हा हा हा."
मेरा मन किया कि इन श्रीमन को धक्के देकर गेट से ही भगा दूं. मेरे ही घर पर खड़े होकर मेरी सूरत का मज़ाक उड़ा रहे हैं लेकिन फिर ध्यान आ गया कि अगर ऐसा किया तो मेरी श्रीमती जी का विश्वास और भी पक्का हो जायेगा कि मैं लोगों से लड़ता झगड़ता रहता हूं. इसलिये भरसक विनम्र स्वर में मैंने कहा, " चलिये मैं बन्दर सही, लेकिन आप हैं कौन और मेरी सूरत का विश्लेषण करने का आप को क्या अधिकार है ?"
"फ्रीमान जी, आज तो आप चाहे आधा घन्टा लेट हो जाइये अपने आफिफ में लेकिन मैं बिना चाय पिये टलूंगा नहीं."
क्या कहता मैं ऐसे आदमी से ? मन मार कर बोला, " आइये अन्दर आइये लेकिन मैं आप को सिर्फ पन्द्रह मिनट दे पाऊंगा." .
"तो फिर चाय बनवाने के लिये पहले ही कह दीजिये वर्ना चाय आते आते ही पन्द्रह मिनट हो जायेंगे फिर पीने में दफ मिनट और आप अधिक देर फे ऑफिफ पहुंचेंगे, बॉफ की डांट फुनेंगे और चपराफी को डांटेंगे, वह अपने फाथी फे आपकी बुराई करेगा और इतना फब कुछ हो जायेगा केवल इफ लिये क्योंकि चाय तुरन्त नहीं बन रही है."
उफ्फ, कैसे विचित्र जीव से पाला पड़ा है, सोचते हुए मैंने पत्नी जी से कहा कि जल्दी से चाय बना दो. जवाब मिला कि कितनी जल्दी ? मैंने कहा इतनी जल्दी कि चूल्हे के दोनों बर्नर पर एक साथ एक एक प्याला चाय चढ़ा दो ताकि आधे समय में चाय बन जाये.
"तुम और तुम्हारी तरकीबें...." भुनभुनाती हुई पत्नी जी चाय बनाने लगीं.
मैं वापस ड्रांइगरूम में आया और इन साहब से बोला, " अब अपना परिचय तो दीजिये."
"अजी मैं क्या और मेरा परिचय क्या ? नाम है मेरा फाफ्वत फ्रीवाफ्तव और आपके पड़ोफ में पिछले फप्ताह ही रहने के लिये आया हूं. आपका नाम, पता और चित्र देखा था फमाचार पत्र में तो लगा कि आप तो पड़ोफी हैं मेरे, फो आप को खोज ही रहा था कि आज फवेरे आप अपने कुत्ते को फैर कराने के लिये जाते हुए दिखे तो फोचा कि आप फे फाहब फलामत कर ली जाये. वैफे आपका कुत्ता भी बड़ा बदफूरत है."
मैंने डैशंड प्रजाति का कुत्ता पाल रखा है जो सुन्दर तो नहीं होता लेकिन कोई उसे बदसूरत कहे, मुझे बर्दाश्त नहीं. कहीं मेरी छोटी बेटी सुरुचि उन्हें ऐसा कहते सुन लेती तो घर से ही भगा देती उनको.
मैं इस 'फकार' से बजाय आनन्दित होने के चिढ़ रहा था. मैंने कहा, "शाश्वत श्रीवास्तव जी, आप ठीक से क्यों नहीं बोलते हैं भई ?"
"अरे मैं क्या करूं ? बचपन फे ही मैं फ और फ को फ बोलता हूं. फारे अक्षर फही बोलता हूं बफ फ और फ नहीं बोल पाता ? इतनी कोफिफ करता हूं मगर नहीं हो पाता मुझफे."
मैंने फोचा, उफ्फ फोचा नहीं, सोचा कि अब तो इन सज्जन से रोज ही पाला पड़ेगा, कैसे झेलूंगा. फिर सोचा कि अभी तो ये चाय पीकर जायें फिर देखा जायेगा. इस समय मैं कुछ भी मांगता तो मिल जाता क्योंकि पत्नी जी चाय की ट्रे लेकर आ गयीं.
"नमफ्ते भाभी जी, चाय का फुक्रिया" नारा सा बुलन्द हुआ. पत्नी जी ने नमस्ते का उत्तर दिया और क्षमा मांग कर अन्दर चली गयीं. मैं फिर इन फ्रीमान यानी श्रीमान जी के साथ अकेला रह गया. लगभग आठ मिनट गुजर चुके थे. मैंने इन्हें जल्दी निपटाने के विचार से कहा, " लीजिये गर्मागर्म चाय पीजिये".
"अजी गरम चाय से मुंह और गले की नली जल जाती है, मैं तो ठंडी कर के पियूंगा." उत्तर मिला.
ऐसे विचित्र जीव से पहली बार पाला पड़ा था मेरा. क्रोध भी आ रहा था मुझे लेकिन घर आये व्यक्ति से इससे अधिक बदतमीज़ी कर भी नहीं सकता था. चुपचाप अपनी चाय पी गया मैं और उनका मुंह देखने लगा. कुछ बोल इसलिये नहीं रहा था कि अगर बोलूंगा तो यह चाय पीना छोड़ कर बात करने लगेंगे और मैं और अधिक लेट होता जाऊंगा. ख़ैर, आराम से चाय पी कर तृप्ति पूर्ण ढंग से चटकारा लेकर श्रीवास्तव जी उठ खड़े हुए और बोले, " फुक्रिया बोलिये मुझे. मैंने चौदह मिनट में ही आपको फुर्फत दे दी है. फाम को मेरे घर चाय पीने आइयेगा." मैने उन्हें धन्यवाद दिया और गेट तक उन्हें छोड़ कर आया.
शाम को बैंक से लौट कर नहा धो कर मैंने सोचा कि सौजन्यवश श्रीवास्तव जी के घर जा कर मिल आऊं, चाय भले पियूं या नहीं. वे घर के सामने ही कुर्सी डाल कर बैठे थे. मुझे देखते ही उत्साह से भर उठे और बोले, "फ्वागत, फ्वागत. आपने हमफे मिलने के लिये फुरफत निकाली, बड़ी प्रफन्नता हुई." ख़ैर हम लोग ड्रांइगरूम में बैठे और उन्होंने आवाज़ लगाई, "फुनील की मां, देखो तो कौन आया है ?" अन्दर से एक सम्भ्रान्त सी दिखती महिला जो घर में भी सुरुचिपूर्ण ढंग से तैयार थीं, बाहर आयीं और बोलीं, "अड़े भाई साब, नमस्काड़. आप अकेले क्यों आये ? भाभी जी को भी आना था." मैं 'फकार' और 'ड़कार' के झटके से उबरना चाह रहा था इस लिये खींसे निपोरते हुए बोला, " जी वे थोड़ी व्यस्त हैं इसलिये फिर कभी आपसे मिलने आयेंगी."
"देखिये, उनसे कहिये कि पहली फुड़सत में अवश्य आयें बल्कि मैं पहले खुद जाऊंगी उनसे मिलने".
"ज़रूर ज़रूर", मैं बोला.
श्रीवास्तव जी बोले, " फिंग फ़ाहब, मेरे घर में एक फमफ्या है. मैं फ और फ नहीं बोल पाता और मेरी पत्नी र नहीं बोल पाती हैं. आपको थोड़ी अफुविधा तो होगी पर फह लीजियेगा."
"नहीं नहीं, असुविधा जैसी कोई बात नहीं है. मैं आप लोगों की बात खूब समझ सकता हूं."
"फमझदार लोगों की यही पहचान होती है."
अब उनकी श्रीमती जी बोलीं, " भाई साहब, चाय लेंगे या कोल्ड डिड़िंक".
मैंने कहा, "जी, मैं चाय पी लूंगा." मैं चाय के लिये कभी मना नहीं करता क्योंकि अक्सर लोग दूसरी बार पूछते ही नहीं है तो मन मसोस कर रह जाता हूं.
"ठीक, चाय में शक्कड़ डालूं या नहीं ?"
"अरे घर में फक्कर नहीं है क्या जो पूछ रही हो ?"
"नहीं जी, शक्कड़ तो बहुत है पड़ पता नहीं भाई साहब को सुगड़ न हो."
"जी भाभी जी, मैं तो बिना शक्कर की ही चाय पियूंगा."
"कोई सा भी."
"नहीं नहीं, आप अपनी पफन्द बता दीजिये फ्रीमती जी को. घर में दोनों दूध हैं." यह श्रीवास्तव जी थे.
"ओके, आप पराग का दूध डाल दीजिये."
"चाय की पत्ती कौन फी पीते हैं आप ? ग्ड़ीन लेबल, ड़ेड लेबल, यलो लेबल या औड़ कोई लेबल ?" श्रीमती जी ने पूछा.
मेरा सर भन्नाने लगा था और मैं सोच रहा था कि किस कुघड़ी में चाय के लिये हां कर बैठा. मैं बोला, " रेड लेबल ही बना दीजिये. आम आदमी की चाय है और मैं वही पीता हूं."
"ये बताइये आप की चाय में पानी उबलने पड़ पत्ती डाली जाये या पानी में दूध डालने के बाद."
"देखिये भाभी जी, पत्ती का अंजाम तो वही होगा चाहे आप पहले डालें या बाद में." अब मुझे 'क्ड़ोध' ओफ ओह 'क्रोध' आने लगा था.
"आप बड़ी मजेदाड़ बात कड़ते हैं. हमाड़ा एक नौकड़ था एकदम मूड़ख. वह भी बिलकुल आप की तड़ह बात कड़ता था."
अब लग रहा था कि मैंने बड़ी गलती की यहां आ कर और मैंने सोचा कि अचानक किसी का फोन आ जाये तो मैं इन लोगों से क्षमा मांग कर निकल लूं लेकिन कम्बख़्त दिन भर बजने वाला फोन इस समय मुरदे की तरह शान्त था.
"चलिये, मेरे बहाने आप को अपने नौकर की याद तो आयी." मैने परिहास में टालने की कोशिश की.
"अजी याद क्या आयी, वह तो ऐफा मूरख था कि क्या बताऊं, इतने किफ्फे हैं उफके. हंफते हंफते आपको मजा आ जायेगा."
"ह्म्म, तो आपका नौकर मूर्ख था और मेरी तरह बातें करता था अर्थात मैं भी मूर्ख हूं." मैंने हंसी की चाशनी में लपेट कर व्यंग्य करना चाहा.
"अभी हमें क्या पता ? आज तो पहली बाड़ मिले हैं आप. मिलते ड़हेंगे तो समझ में आयेगा हमाड़े."
इतने सवाल जवाब के बाद भी अभी तक चाय के दर्शन नहीं हो रहे थे. मुझे लगा कि बेकार ही चाय के लिये हामी भर बैठा. अपने घर में अपनी पसन्द की चाय इत्मीनान से पीता.
"आप के घर फे आने के बाद आज फवेरे मेरी मुलाकात फक्फेना जी फे भी हुई. वे बुजुर्ग तो हैं लेकिन बड़े रफिक हैं. खूब गाने फुनते हैं दूरदर्फन पर."
"जी, सक्सेना जी अच्छे आदमी हैं और रिटायरमेन्ट के बाद दिन भर टीवी के साथ व्यस्त रहते हैं." मैंने कहा. "श्रीवास्तव जी, आप कहां काम करते हैं ? आप आज ड्यूटी पर नहीं गये ? लोगों से मिलते ही रहे क्या ?"
श्रीवास्तव जी बोले, " जी मैंने तो फ्वैच्छिक फेवानिवृत्ति ले ली थी नौकरी फे. मैं यूनिवर्फिटी में फाइंफ का प्रोफेफर था."
मेरा सारा आक्रोश जाता रहा और मैं यही सोचने लगा कि जिन विद्यार्थियों को यह फज्जन ओहो, सज्जन साइंस पढ़ाते होंगे, वे फार्मूला कैसे समझते होंगे और अपनी क्लास में हंसते होंगे या पढ़ते होंगे. बहरहाल चाय आ गयी और आशा के विपरीत काफी अच्छी भी थी. मैं चाय पी कर पति पत्नि को धन्यवाद देकर लौट आया लेकिन यह सोच रहा हूं कि अब, जबकि ये मेरे पड़ोस में ही बस गये हैं तो बराबर मुलाकात होती रहेगी और पता नहीं क्या क्या किस्से बनते रहेंगे.